प्रो. प्रदीप माथुर
नई दिल्ली। विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या के 6 देशों में शामिल भारत, चीन और पाकिस्तान आज कोरोना वायरस की विभीषिका की रोकथाम और उस पर विजय पाने के एक ऐसे युद्ध में संलग्न है जैसे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। एशिया के इन देशों में समस्त विश्व की लगभग आधी जनसंख्या रहती है। अंत कोरोना से इनका संघर्ष मानवता की रक्षा के लिए किया जाने वाला एक बड़ा संघर्ष है।
कोरोना की विभीषिका ने समस्त विश्व की तरह ना सिर्फ हमारे इन तीन एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था पर बहुत गंभीर प्रहार किया है बल्कि इनको अपने समस्त संसाधनों को भी इस युद्ध में झोंकने के लिए बाध्य किया है। इससे जहां एक और आर्थिक मंदी की स्थिति आई है वहीं पर दूसरी और विकास की तमाम योजनाएं भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है। भारत की विकास दर अपने आज तक के सबसे नीचे स्तर पर आकर नकारात्मक गुणांक में प्रवेश कर गई है। एशिया की इन तीन बड़ी शक्तियों के लिए अर्थव्यवस्था की स्थिति जितनी गंभीर है उतनी ही यह दुर्भाग्यपूर्ण है। पर शायद इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इस अभूतपूर्व संकट के समय जब विश्व की आधी मानवता की रक्षा सबसे बड़ा और एकमात्र कार्य है हमारे यह देश एक निरर्थक आपसी सीमा विवाद में अपनी शक्ति ऊर्जा और समय का अपव्यय कर रहे हैं।
भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान विश्व में अकेले ऐसे देश नहीं है जहां सीमा को लेकर विवाद और टकराव हो। यह स्थिति विश्व के तमाम देशों में है। पर यह समय न सीमा विवाद सुलझाने का है न ही टकराव का। शायद इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हमारे इन देशों का राजनीतिक नेतृत्व और उससे शासित जनमानस यह नहीं जानता कि यह अनसुलझे सीमा विवाद और उनसे जनित टकराव के मूल में वह गहरा षड्यंत्र है जो यूरोप के साम्राज्यवादी देशों ने जितने महायुद्ध के बाद उपनिवेशवाद युग की मृत्यु-शैया पर हमारे लिए रचा था। यदि हम उस षड्यंत्र को पूरी तरह समझ ले तो शायद विवाद और टकराव की स्थिति उत्पन्न ही न हो।
यूरोप के साम्राज्यवादी देशों ने पिछली शताब्दी में भारत की तरह ही कोरिया, चीन, वियतनाम, इराक, फिलिस्तीन और इथोपिया जैसे कई देशों का विभाजन कराया। इसी षड्यंत्र के कारण आज उपनिवेशवादी युग की समाप्ति के 70-75 वर्ष बाद भी एशिया और अफ्रीका के देश आपसी संघर्षों के चलते आर्थिक विकास की दौड़ में काफी पीछे रह गए हैं।
हम यह भूल जाते हैं कि 1947 में स्वतंत्रता के समय भारत का विभाजन ब्रिटिश साम्राज्यवादीयों कि एक ऐसी चाल थी जिसकी सफलता के लिए वह पिछले 90 वर्ष से कार्य कर रहे थे। वर्ष 1857 में असफल रहे हमारे प्रथम संग्राम के पश्चात ब्रिटिश साम्राज्यवादियो ने समझा कि भारत पर शासन करने के लिए आवश्यक है कि यहां के प्रबुद्ध वर्ग को मानसिक गुलाम बनाया जाए, विभिन्न धर्मों और जातियों का आपसी सौहार्द पूर्ण संबंध समाप्त किया जाए। जहां मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा में प्रबुद्ध भारतीय वर्ग के मन में अपने लिए हीन और पाश्चात्य जगत के लिए एक आदर भाव भरा वही सांप्रदायिक वैमनस्यता के बीच में धार्मिक वर्ग और जातियों के संबंध में कड़वाहट भरी।यदि हम आपसी सीमा विवादों की ये साम्राज्यवादी पृष्टभूमि समझ के तो हमें निश्चय ही इन विवादों का शांतिपूर्ण समाधान करने में सहायता मिलेगी। इससे हम आपसी टकराव व जनधन की हानि से बच जायेंगे।
आज समय की मांग है कि चीन, भारत, पाकिस्तान, और नेपाल जैसे एशियाई देश आपसी संघर्ष व मतभेदो को भुलाकर कोरोना महामारी से मानवता कि रक्षा करे तथा इससे जनित आर्थिक संकट से उभरने कि सांझी रणनीति बनाये। इसके लिए हमें शांति और विश्वास की डगर पर चलना होगा। आज फिर पंचशील के सिद्धांत को अपनाने की आवश्यकता है। यह भी अत्यंत आवश्यक है कि जहां आपसी समझौतों द्धारा व्यापारिक हितो को बढ़ाया जाए वहीं पर सीमित संसाधनों का उपयोग सकारात्मक रूप से किया जाए। आपसी टकराव और संघर्ष को प्रोत्साहन देने वाली मानसिकता पर इस समय संसाधनों का अपव्यय एक ऐसा अमानवीय अपराध है जिसके लिए भविष्य हमें कभी क्षमा नहीं करेगा।
स्वतंत्र लेखन में वरिष्ठ पत्रकार/संपादक प्रोफेसर प्रदीप माथुर भारतीय जनसंचार संसथान (आई. आई. एम. सी.) नई दिल्ली के पूर्व विभागाध्यक्ष व पाठ्यक्रम निदेशक है। वह वैचारिक मासिक पत्रिका के संपादक व् नैनीताल स्थित स्कूल ऑफ इंटरनेशनल मीडिया स्टडीज (सिम्स) के अध्यक्ष है। प्रोफेसर प्रदीप माथुर ICN ग्रुप के ऐड्वाइज़र एवं सीनियर कंसल्टिंग एडिटर भी है।